उत्तराखंड की हर परंपरा में खास भूमिका निभाने वाले ढोल को लेकर दंतकथाओं में कहा गया है कि इसकी उत्पत्ति शिव के डमरू से हुई है। जिसे सबसे पहले भगवान शिव ने माता पार्वती को सुनाया था। कहा जाता है कि जब भगवान शिव इसे सुना रहे थे, तो वहां मौजूद एक गण ने इसे मन में याद कर लिया था। तब से ही ये परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी मौखिक रूप से चला आ रही है। ढोलसागर में प्रकृति, देवता, मानव और त्योहारों को समर्पित 300 से ज्यादा ताल हैं। ढोल और दमाऊं एक तरह से मध्य हिमालयी यानी उत्तराखंड के पहाड़ी समाज की आत्मा रहे हैं। जन्म से लेकर मृत्यु तक, घर से लेकर जंगल तक कहीं कोई संस्कार या सामाजिक गतिविधि नहीं जो ढोल और इन्हें बजानेवाले ‘औजी’ या ढोली के बगैर पूरा होता हो। इ नकी गूंज के बिना यहां का कोई भी शुभकार्य पूरा नहीं माना जाता है। चाहे फिर वो शादी हो या संस्कृति मेले ,लोक संस्कृति कार्यक्रम। आज भी खास अवसरों, धार्मिक अनुष्ठानों और त्योहारों में इनकी छाप देखने को मिल जाती है
ढोल दमाऊं उत्तराखंड का प्राचीन वाद्य यंत्र है। यह दोनों तांबे से बने होते है और दोनों को साथ ही बजाया जाता है। ढोल को प्रमुख वाद्य यंत्र में इसलिए शुमार किया गया कि इसके जरिए जागर और वैसी लगाते समय इसके माध्यम से देवी-देवताओं का आह्वान किया जाता है। एक वक्त था कि पहाड़ में होने वाली शादियों के यह अभिन्न अंग हुआ करते थे। मंगनी और शादी के दौरान बाजगी ढोल बजा बजाकर लोगों की खुशी में इजाफा कर देते थे। इनकी गूंज से मेहमानों का स्वागत किया जाता रहा है। खास बात यह होती थी कि शादी में दोनों पक्षों वर और कन्या के अपने अपने बाजगी होते थे। वर पक्ष वाले जब घर से निकलते थे तो ढोल-दमाऊ-मशक बजा कर ख़ुशी का इज़हार किया जाता था। ठीक उसी तरह कन्या पक्ष के बाजगी अपने यहां अतिथियों का ढोल से स्वागत करते थे। रात होने पर उनके द्वारा नोबत लगाई जाती थी। नोबत ढोल-दमाऊ की विभिन्न थाप के जरिये बजाये जाने वाले कुछ विशेष ताल होते थे