“लोकतंत्र प्रेमियों के लिए यह कोई संतोष की बात नहीं है कि प्रतिपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी क्षेत्रीय उम्मीदों एवं पहचान की राजनीति के बल पर ही जिंदा रहे।”
विधानसभा के चुनाव नतीजे कांग्रेस के राष्ट्रीय स्तर पर कायाकल्प के कोई ठोस संकेत नहीं दे रहे हैं। राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के लिए अच्छे संकेत तब माने जाते जब हरियाणा के ही अनुपात में उसे महाराष्ट्र में भी सीटें मिलतीं, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। जहां महाराष्ट्र में वह चौथे नंबर पर जाकर टिकी है वहीं हरियाणा में उसके प्रदर्शन में राष्ट्रीय नेतृत्व का योगदान मुश्किल से ही नजर आता है। नि:संदेह इसी के साथ इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि भाजपा का जहां महाराष्ट्र में दबदबा कम हुआ वहीं हरियाणा में वह बहुमत से पीछे रही। क्या यह एक गैर जाट को मुख्यमंत्री बनाने के भाजपा के प्रयोग की विफलता की निशानी है? जो भी हो, लोकतंत्र प्रेमियों के लिए यह कोई संतोष की बात नहीं है कि प्रतिपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी क्षेत्रीय उम्मीदों एवं पहचान की राजनीति के बल पर ही जिंदा रहे।
आज प्रतिपक्ष जितना कमजोर और दिशाहीन है उतना इससे पहले कभी नहीं था। स्वस्थ लोकतंत्र के लिए यह कोई अच्छी बात नहीं है, पर इस स्थिति के लिए खुद कांग्रेस ही जिम्मेदार है। बीते लोकसभा चुनाव में करीब 12 करोड़ मत हासिल करने के बावजूद कांग्रेस यदि फिर से राष्ट्रीय स्तर पर एक मजबूत पार्टी के रूप में उभरती नहीं दिख रही तो यह अकारण नहीं है। समस्या कांग्रेस की ‘काया’ में नहीं, बल्कि उसकी ‘आत्मा’ में है।
वर्ष 2014 में हुए आम चुनाव के पहले सलमान खुर्शीद ने कहा था कि ‘राहुल गांधी हमारे सचिन तेंदुलकर हैं’, पर अभी हाल में उन्होंने कहा कि ‘हमारे नेता ने हमें छोड़ दिया।’ उनके हिसाब से राहुल ही हमें पुन: सत्ता दिलवा सकते हैं, लेकिन उन्हें महाराष्ट्र और हरियाणा में पार्टी की जीत की संभावना नहीं दिख रही थी। पिछले वर्षों में जब-जब कांग्रेस को चुनावी हार का सामना करना पड़ा तब-तब उसने यही कहा कि हम अपनी गलतियों से सीखेंगे, पर सीखने की बात कौन कहे, उन कारणों को भी याद नहीं रखा गया जो हार के मुख्य कारण रहे।