- विश्व पृथ्वी दिवस: कवयित्री सुनीता चौहान द्वारा रचित एक सुंदर रचना-.
धरती फिर लौटेगी अपने रंग में..इसी अटूट विश्वास संग
सभी के लिए शुभेच्छा 💐💐
अभी तो धरती सुबक रही है..उसकी सिसकियों की गूँज सुनाई
दे रही है पहाड़ के ऊंचे शिखरों पर वहां से हवा संग जा रही पहाड़ी तलहटी में..दूर तक फैले बुग्यालों के सीने में धंसती
गाँव के खेत खलिहान से होकर शहरों की उठा पटक के बीच हर तरफ पसर रही है..धरती भी हर माँ की तरह स्वयं के लिए भला कहाँ कुछ चाहती है.उसकी हंसी खुशी उसका कण कण दूसरों के लिए होता है और रुदन..वो भी तो इंसानो के वास्ते ही कर रही हैं
देखा नही जा रहा है उससे दैत्य के पंजों में फंसते अपने बच्चें
अभी तो उसने सजना संवरना शुरू किया था, नाना फूल नव पल्लव ओढ़े,आह्लादित मन मयूर थिरक उठा था वह भिज्ञ थी
कि उसके थिरकने से थिरक उठते हे उदास बच्चे..जो थिरक नही सकते वो झूम उठेंगे…पर ये क्या!यकायक दैत्य की आहट से ठिठक उठी.और फिर शनैः शनै आगे बढ़ता दैत्य जो बच्चों को दबोच रहा थाऔर वो व्यथित,बेबस अपलक देख रही है
आखों से बहती जलधारा,हृदय में उमड़ते गम के सैलाब के साथ बची हुई जिन्दगियों के लिए प्रार्थना🙌👏🙏🙇 कर रही है
और खडी़ है हौसले संग हमारे लिए।
बढ़ती तपिश,हवा का कम होता दाब,पिघलते गलेशियर,नदी,ताल तलैया,गाड़ गदेरे का सिमटता जल,कंक्रीट का बढ़ता सघन जाल,धुआँ होता जंगल का अस्तित्व,
घर खान पान की तलाश में भटकते मवेशी,अथाह कचरे के पिरामिडों को खामोशी से ढोती..असीम पीड़ा को मन में सहेजे..जिसका कारण कहीं न कहीं हम इंसा ही है.बाबजूद इसके धरती खडी़ है पूरी शिद्दत से हमारे साथ
दुख के इस विकट समय में
यूँ भी जिन्दगी कौन इत्तीऽऽऽ बडी़ थी कि छोटी करने के लिए
इस दैत्य को आना पडा़।
ऐसा लग रहा है जैसे मुट्ठी में रेत की मानिन्द सब कुछ फिसल
रहा है.पर हम बार बार भूल जाते है कि जिन्दगी की तो आदत है
इम्तिहान लेने की..परीक्षा की इस घड़ी में सबको मिलकर एक दूसरे की मदद करनी है साथ रहना है मन से.. एक दूरी में रहते हुए भी। ….जूझ तो रहे ही थे अब लड़ना होगा पूरे विश्ववास के साथ।जैसे धरती लड़ती है तमाम झंझावतो से और बनती है सिकन्दर हर बार।
सुनीता चौहान