देहरादून
दिनांक 25 जुलाई 2021 को राष्ट्रीय पत्रिका ‘ लोक गंगा’ के मध्य हिमालय की जनजातियों पर केंद्रित विशेषांक का लोकार्पण बी-6 प्रीतम रोड, निकट गांधी नेत्र चिकित्सालय में हुआ । कार्यक्रम में ‘हिमालय के कैनवास पर जनजातियां’ परिचर्चा में शहर के प्रबुद्ध साहित्यकारों द्वारा प्रतिभाग किया गया। लोक गंगा के मध्य हिमालय पर केंद्रित विशेषांक के बाबत चर्चा करते हुए पत्रिका के संस्थापक/प्रधान संपादक योगेश चंद्र बहुगुणा जी ने कहा कि देश के भिन्न-भिन्न भागों से आकर मध्य हिमालय में इन जनजातियों के बसने का इतिहास पांच हजार साल पुराना है । इनमें घुमक्कड़ पशु चरवाहे, कृषक , खेतिहर व्यापारी, मजदूर, गृह और कुटीर उद्योग इन सभी प्रकार के लघु समुदाय रहे हैं। लोके गंगा के इस विशेषांक में हिमालय के सामाजिक, आर्थिक परिवर्तन पर प्रकाश डालते हुए उनकी सामाजिक संरचना को संरक्षित करने का प्रयास किया है। सम्पादक एवम गीतकार डॉ बुद्धिनाथ मिश्र ने कहा कि किसी भी जनजाति का विकास उसकी अस्मिता को नष्ट कर नहीं होना चाहिए। उसके विकास में उसकी सांस्कृतिक पहचान का सम्मान और संरक्षण आवश्यक है।सरकार की नीति इसके विपरीत है,जो घातक है। भारत की पहचान बनाने में जनजातियों की हजारों साल लंबी परंपराओं का विशेष योगदान है।रामायण और महाभारत जैसे प्राचीन इतिहास ग्रंथों में जनजातीय समाज की वीरतापूर्ण भूमिका उल्लेखनीय है।आजादी के बाद जनजातीय चेतना में तेजी से ह्रास हुआ है,जो वस्तुतः चिन्ताजनक है। इस परिचर्चा में भाग लेते हुए डॉ सविता मोहन (पूर्व निदेशक उच्च शिक्षा उत्तराखंड) ने कहा कि हिमालय के दुर्गम क्षेत्र में बसे होने के कारण 8न जनजातियों के बारे में लोग बहुत कम जानते है। आज जबकि वैश्वीकरण संस्कृतियों की देशज पहचानो को लीलता जा रहा है तो इस समय लोक गंगा के इस अंक में लोक कथाएं हारुल गाथाएं , एक मीठी से बयार लगती है..। परिचर्चा का संचालन करते हुए डॉक्टर कमला पंत (पूर्व निदेशक प्रौद्योगिक एवं विज्ञान संस्थान) ने कहा कि आज सभ्यताओं के संक्रान्तिकाल है। महानगरों में रहने वाले छोटे शहर में रहने वालों को पूछते नही है। लोक गंगा द्वारा किया गया इस काल में जनजातियों के संरक्षित करने का कार्य बहुत बड़ा है मील का पत्थर है। जन जातियों की संस्कृति उनका रहन सहन , खान पान को आज की मुख्यधारा में मिलाना अनेकता में एकता है की विविधता को दर्शाने का लोकगंगा का प्रयास है जो कि संग्रहणीय है। यह बुद्धि जीवियों द्वारा एवम सरकारों की तरफ से भी प्रयास हो। अपनी बात को रखते हुए वरिष्ठ साहित्यकार डॉ योगाम्बर बड़त्वाल ने कहा कि जनजाति समाज की सबसे बड़ी उपादेयता इसलिए है कि उन्होंने लोक गीत , लोक कला, रहन-सहन एवं खानपान की पद्धति को जीवित रखा है। वरिष्ठ साहित्यकार डॉ विद्या सिंह ने कहा कि उत्तराखंड का वर्तमान स्वरूप निर्मित करने में किसी एक जाति विशेष का नहीं अपितु वर्तमान एवं पूर्व में निवास करने वाली किन्नर, गंधर्व, यक्ष, कोल, मुंड, किरात, हूंण, शक, दरद, खश, नाग आदि अनेकानेक जातियों का योगदान है। लोक गंगा का प्रस्तुत अंक इस अर्थ में संग्रहणीय है कि इसमें उत्तराखंड में वर्तमान में निवास करने वाली महत्वपूर्ण जनजातियों के बारे में विद्वान लेखकों ने जानकारी दी है। इतनी विस्तृत जानकारी एकत्र करने के लिए संपादक एवं प्रकाशक बधाई के पात्र हैं। लोग गंगा की संयुक्त संपादक मंजू काला ने ‘हिमालय के कैनवास पर’ परिचर्चा में सभी प्रबुद्ध बुद्धिजीवियों का स्वागत करते हुए कहा कि लोग गंगा के इस अंक में हिमालय की विशिष्ट जातियों चाहे वह किन्नौर की गद्दी समुदाय हो या गमशाली गांव की सामाजिक संरचना हो या रवांई घाटी की संस्कृति हो या फिर पाकिस्तान स्थित हिंदूकुश पर्वत की घाटी में रहने वाली जनजाति सभी को समेटा है। कार्यक्रम के अंत में लोग गंगा की प्रकाशक कल्पना बहुगुणा ने सभी आमंत्रित अतिथियों का धन्यवाद करते हुए कहा कि हमें इस विशेषांक को निकालने में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, बात चाहे आलेखों की हो या आर्थिक पक्ष की हो। लेकिन हम चाहते थे इन लुप्त होती हुई जनजाति की संस्कृति संरक्षित हो इस हेतु इस विशेषांक को निकालने का प्रयास किया। परिचर्चा में शशिभूषण बडोनी, डॉ नंदकिशोर हटवाल, डॉ महावीर रवांल्टा , मुकेश नौटियाल, रजनीश त्रिवेदी, डॉ राकेश ब्लोनी, वीरेंद्र डंगवाल,नरेंद्र उनियाल, इंदर देव रतूड़ी एम्बर खरबंदा निम्न साहित्यकारों ने भाग लिया और अपने विचार व्यक्त किए।