लेखिका सुनीता चौहान द्वारा बसंत पर लिखी गयी एक रचना.
मौसम- ए-गुल
बासंती ओढ़नी में खिल खिल उठी धरा
……..गीत मल्हार गा रही सुन ले जरा🌷🌻🌻🌹
बसंत अकेले नही आता संग में आती है उम्मीद की किरन
पत्तो की सरसता,फूलों का महकना,कलियों का खिलना
पंछियों का चहकना सरि की कलकल का ज्यों
किसी धुन पर थिरकन,, दूर तक जाता है,बादलों
के गांव में हवा की सरसराहट में,,,वो ढहा देता है
बाहर भीतर सन्नाटे के साम्राज्य कोऔर बसा देता है
एक महल संगीत का जिसकी धुनों पर थिरक
उठती है उदास जिन्दगियां भी।
बसंत माने एक ऐसे बदलाव की दस्तक जो भर
देता है प्रकृति के कण कण कण को अद्भुत सौन्दर्य
से… जिसकी छटा बिखेरती है हषॅ और उमंग के
फूल, उम्मीद की किरण, उत्साह, उमंग के गीत.. जो
तोड़ देते है तुम्हारे बाहर भीतर के सन्नाटे को..संगीत
की धुन बज उठती एक नये सुर ताल में.. जिसकी गूंज
जाती है दूर तक.. बादलों के गाँव में, पंछियों की चहचहाट,
पेड़ों की छांव में, गुनगुनी धूप की सुनहरी आभा में, मंद मंद
बहती बयार में एक अलहदा खुशी होती है चहूं ओर,,,
कल कल बहता सरि का नीर अधिक उन्मादी हो हिलोरे
भरता है, पेड़ों की शाखाएँ झूम उठती है, हमारे तन मन में
एक नई ऊर्जा उत्सर्जित होती है।
प्रकृति समय की गति से तारतम्य बना कर चलती है,, एक
अनुशासित निरन्तरता, लयबद्धता, प्रतिबद्धता उसमें रची बसी
रहती है।
आत्मसात करने वाली बात यह है कि प्रकृति बहुत कुछ
सहकर,, न जाने कितने आंधी तूफान,झंझावात, झुलसाती तपन, पतझड़ का विराना, सावन की घनघनाहट, शीत की ठिठुरन, सहते हुये धैर्य, संयम की डोर नही छोड़ती।
क्यो न हम भी प्रकृति से सीख लेते हुए धीरज का दामन
थाम ले, और जीवन के तमाम झंझावात का सामना दृढ़ता से करे,, फिर एक न एक दिन तो आयेगा बसंत।
सुनीता चौहान