चलो कुछ देर के लिए ही सही
बच्चो की दुनिया में रम जाये
छल-प्रपंच से भरे मन
संभवतः हल्के हो जाये
जब मेरे ज़हन में पंक्तियाँ आयी थी,तब मेरा मन कल्पना के
रंग में रंगा हुआ था या शायद अपने बचपन के समय को महसूस किया था।पर क्या आज के परीप्रेक्ष्य में यह संभव है कि हम बच्चो के किसी समूह में जाये और सारे बच्चे खुशी से चहकते मिले।
किसी भी तरह का तनाव,दबाव,हताशा,कुंठा उनके कोमल मन में न हो?
जवाब हम सभी जानते है।आज नर्सरी से लेकर स्कूल कालेजों
तक बस नम्बरों की होड़ है।नम्बरों के बोझ तले बचपन की मासूमियत,सरलता,स्वाभाविकता कहीं खो गयी है।
छोटी सी उम्र और खेलने-कूदने के वक्त को सीमित धागो में
बांध दिया ,और भारी-भरकम किताबों की दुनिया में
धकेल दिया जाता है।जो बचपन प्रकृति के सानिध्य में रहकर
फूलों सा खिल सकता,पंछियों के कलरव सा चहक सकता था
उसे हमने किताबों की जंग का सिपाही बना दिया।नन्हे मासूम
मनो की परतों पर कब पढ़ाई का तनाव,दबाव बढ़ता चला गया
मालूम ही नही पड़ा।
हमने सफलता के नये मापदंड तैयार कर लिये।90%प्रतिशत
या उससे अधिक नम्बरों की मार्गसीट सफलता की गारंटी
मानी जाने लगी।
आश्चर्य तो तब होता है जब रिपोर्टकार्ड देखकर माता पिता के
प्यार का ग्राफ घटता-बढ़ता रहता है।
आज हर माँल,बड़ी दुकानों में माता-पिता मंहगे खिलौने ब्रांडेड
कपड़े खरीदते हुए दिखाई देते है।बच्चो के मन में मंहगी चीजो
के प्रति आकषर्ण हम ही पैदा करते है। आज हममें से कितने लोग अपने बच्चों को बाजारों की चमक धमक से दूर प्रकृति
के करीब लेकर जाते है।शायद उनकी संख्या न के बराबर है।
हम बच्चों को 👶👶किताबों से ए फार एप्पल और अ से
अनार तो सिखाते है,किन्तु अपने घरों में या आस-पास लगे
पेड़ पौधे,फूल 🌺🌻🌹🌷पत्तियाँ,फलो से उनका परिचय
कराना भूल जाते है,किताबों की दुनिया में ले जाते हुए जाने
अनजाने प्रकृति🌿🍃 की कक्षा से उनको दूर ले जाते है।
और ज्ञान के अपरिमित बहते स्तोत्र को नजरअंदाज
कर बैठते है,,और फिर प्रकृति के विपरीत जाने
परिणाम भुगतते है।
हम खुद ही उनके सामने भौतिकता के रस में डूबी चीजें परोस
रहे,फिर जब उनके मानसिक,शारीरिक स्वास्थ्य पर कुप्रभाव
पड़ता है तो समझ नही पाते ये क्या हो रहा है?
कहाँ खो गया वो बचपन जब मन किसी भेदभाव को नही मानता
था,दो़स्ती ब्रांडेड चीजो की मोहताज नही थी,उनकी आंखो में
अजनबी के लिए भी विश्वास झलकता था।
बहुत कुछ बदल रहा है ,निश्चित तौर पर बदलाव विकास का सोपान है,पर बचपन की मासूमियत का यूं बदलना या यूँ कहे कि
बचपन का वक्त से पहले परिपक्व होना क्या आने वाले समय के लिए शुभ संकेत है?या हमें खुद के आंकलन की जरूरत आन पडी़ है,भौतिकतावादी सोच जो हमारे भीतर फल-फूल रही है,उसमें अंकुश लगाने को जरूरत है।
आखिर हमारे विचारों की तरंगो से हमारे नौनिहाल तो प्रभावित
होते ही है।तो क्यों न कुछ ऐसा संकल्प ले जिससे उनकी मासूमियत बची रहे।
सुनीता चौहान